
भजन - Bhajan 115
भगवान की साम्राज्यशक्ति और मूर्तिपूजा की मूर्खता
प्रार्थना 115 में भगवान की अद्वितीय शक्ति और अधिकार को जोर दिया गया है, जो राष्ट्रों द्वारा पूजित मृत मूर्तियों से भिन्न है। प्रार्थक भगवान की निरंतर प्रेम और वफादारी की सराहना करते हैं, और उन्हें उनकी सुरक्षा और प्रावधान में विश्वास करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। प्रार्थना अंत में सभी राष्ट्रों से एक काल किया जाता है कि सच्चे और जीवनशील भगवान की परमप्राधिक को पहचानें।
1हे यहोवा, हमारी नहीं, हमारी नहीं, वरन् अपने ही नाम की महिमा,
2जाति-जाति के लोग क्यों कहने पाएँ,
3हमारा परमेश्वर तो स्वर्ग में हैं;
4उन लोगों की मूरतें सोने चाँदी ही की तो हैं,
5उनके मुँह तो रहता है परन्तु वे बोल नहीं सकती;
6उनके कान तो रहते हैं, परन्तु वे सुन नहीं सकती;
7उनके हाथ तो रहते हैं, परन्तु वे स्पर्श नहीं कर सकती;
8जैसी वे हैं वैसे ही उनके बनानेवाले हैं;
9हे इस्राएल, यहोवा पर भरोसा रख!
10हे हारून के घराने, यहोवा पर भरोसा रख!
11हे यहोवा के डरवैयों, यहोवा पर भरोसा रखो!
12यहोवा ने हमको स्मरण किया है; वह आशीष देगा;
13क्या छोटे क्या बड़े
14यहोवा तुम को और तुम्हारे वंश को भी अधिक बढ़ाता जाए।
15यहोवा जो आकाश और पृथ्वी का कर्ता है,
16स्वर्ग तो यहोवा का है,
17मृतक जितने चुपचाप पड़े हैं,
18परन्तु हम लोग यहोवा को